Wednesday, February 17, 2016

यादों की अनूभूतियाँ (Hindi Story)

कमला सरुप
Published in Abhibyakti.

          बाहर ठण्डी हवा कें झोंके चल रहे थे और खिड़की खोलने का दिल
नहीं कर रहा था । बाहर घना कुहरा छाया हुआ था और अंधेरा होने ही जा रहा
था । इसलिए खिड़की से दिखनेवाली खुली व चौड़ी सड़क भी नजर नहीं आ रही थी
। पहले तो शाम होने भर भी काफी लोग चहलकदमी करते दिख जाते थे । पर शायद
दिसम्बर की शाम होने से लोगों की चहलकदमी बहुत कम हो गयी थी ।  लोग एक्का
दुक्का ही दिखाई दे रहे थे । "मैं जा रहा हूँ" तुम्हारे उद्धोष से मैं
चौंक गयी । वैसे तुम जा रहे हो । खुशी दिल की गहराइयों से हो तो उसकी
महत्ता और भी बढ़ जाती है । तुम बोल रहे हो और मैं याद कर रही हूँ, कैसे
हमारे बिते हुए दिन यह खाली सड़क जैसी उदास उदास हैं । "लोग अपनी-अपनी
जीवन शैली अपनाते हैं पर गौरतलब बात यह है की तमाम लोगों की जीवन शैली
प्रेम में आधारित होनी चाहिए ।" एक दिन अचानक रास्ते में मुलाकात होने पर
तुमने ये बातें कही थी । पास ही के दुकान पर चाय पीने के लिए चलने पर
तुमने फिर कहा - "समझी, लोगों के रिश्ते को ऊँचे मायने में परिभाषित करना
चाहिए, ऐसी मान्यता है मेरी ।" तुम्हारे सवाल का जवाब तो मैं नहीं दे पाई
पर मुझे लगा तुम निश्चित ही एक धार पकड़ रहे हो । यह निश्चित रूप से
अच्छी बात थी, ऐसा महसूस किया मैंने । "जीवन हमारी परिभाषा अनुसार तो
चलने से रही - आज तक का वर्तमान स्पष्ट दिखा गया है मनुष्य जीवन भीषण
कठिनाइयों से गुजर रहा है । मैंने चाय की पहली चुस्की से भी पहले कहा था


       तुम हँसे थे । मुझे यह लग रहा था कि तुम मुझसे सहमत नहीं हो ।
यह निश्चय ही मेरे लिए खुशी की बात तो नहीं थी पर मैंने अपने चेहरे पर
दुःख की परछाईयाँ आने नहीं दी क्योंकि मुझे मालूम था, तुम्हारे संग यस
छोटी व महत्त्वपूर्ण मूलाकात, नाहक बर्बाद नहीं करनी थी मुझे । "हर
परिस्थिति में खुश होने के लिए, धैर्य चाहिए ।" तुम बोले थे । "हाँ, हर
दुःख व विपत्ति में  धीरज ही तो सहारा है ।" मैंने भी अपनी जमी हुई
भावनाएँ उडेल दिए । "पर एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर परिस्थिति का
मतलब यह की जिसे झेला न जा सके ।" मैं बोलती रही थी । तुमने बातें जारी
रखने के लिए एक-एक कप और चाय पीने का प्रस्ताव रखा और फिर हम दूसरी कप
चाय पीने लग गये । "ठन्ड में चाय पीने का मजा ही कुछ और है । हैन ? " मैं
हँस दी थी तुम्हारे सवाल पर । मैंने कहा - "अब चलें, अंधेरा बढ्ने लगा है
।" हम वहाँ से उठने लगे और तुम्हारा चलना मैं स्तब्ध देखती रही । मेरे
पास तुम्हारे अनेक सवालों के जवाब नहीं थे ।

       उसी तरह हमारी अगली मुलाकात अचानक ही एक व्यस्त घर से बहुत दूर
शहर की सड़क में हुई थी । वास्तव में मुझे कभी यकीन नहीं था की हमारी
मुलाकात उस शहर में भी हो सकती है । "मैं घुमने के लिए आया हूँ" बिन पूछे
ही तुम कह गए थे । "मैं भी घुमने ही आई हूँ।" मैंने भी तुम्हारे सुर में
सुर मिलाया था । "फिर एक साथ घुमने चलें ।" तुम्हारे प्रस्ताव को मैं
नहीं ठुकरा सकी थी और कैसे हम दोनों हाथ पर हाथ मिलाए घुमे थे ।
    मैं अब याद कर रहीं हूँ,  कैसे शामको तुम मेरे लिए गुराँस के फूलों
का गुच्छा ले आए थे और साथ में शुभकामना कार्ड भी । मैं वैसे ही झूम उठी
थी और सच कहूँ, तुम्हारा दिया हुआ कार्ड व सुखे हुए ही सही वे गुराँस के
फूल, अब भी कमरे भर सजाकर रखे हैं मैंने । शायद वो कार्ड व फूल ही आखिरी
उपहार थे मेरे लिए तुम्हारे तरफ से ।

       दूसरे दिन सबेरे ही हम साथ साथ घुमने निकल गए थे । शायद वही
आखिरी सुबह थी हमारे साथ की । उसके बाद बहुत वर्षों तक हमारी मुलाकात
नहीं हुई थी । सबेरे का ओस, हाथ भर गुराँस के फूल और मीठी सी ठण्डी हवा
के साथ हमने कैसे तीन घण्टे लम्बा रास्ता पार किया, पता ही नहीं चला था ।
"मैं चाहता हूँ, इस सुबह जैसी ताजगी भरी और इन गुराँस के फूल जैसा सुन्दर
हो तुम्हारा जीवन ।" तुम कवि जैसे बोलने लगे थे और मैं आहिस्ता आहिस्ता
मन्द मन्द हवा में चलने लगी थी । "वह उगते हुए चाँद को देखो तो !" होटल
के छत पर पैर रखते ही तुम चिल्ला उठे थे । मैंने देखा आधी रात में कैसे
चाँद उजाले और सुख का प्रतीक बन कर झिलमिला रहा था । "देखो, यह जीवन तो
क्षणभंगुर है । मगर यह चाँद हमारे मर जाने के बाद भी इसी तरह चमकता रहेगा
और मनुष्य को शान्ति व शीतलता प्रदान करता रहेगा ।'' तुम भावुक हो चले थे
और कैसे मैं  चमकते हुए चाँद को निहारती ही रह गई थी । मुझे पता ही नहीं
चला । मेरी आँखें नम हो चली थी और तुमने मेरे आँसू पोंछ दिए थे । फिर
मालूम पड़ा  मैं रो रही थी । तुम्हारे हाथों का स्पर्श सच कहूँ तो अब भी
महसूस कर रही हूँ । "ओहो, एक दिन तो हम सब मर जाएगें ।" मैं यूँ ही उदास
हो चली थी । मेरे उदासीपन को अनदेखा कर तुम हँसने लगे थे । "सुनो ! मैं
ज्यादातर घर के छत पर बैठकर चाँद की कविताएँ लिखता रहता हूँ। इस
तनावग्रस्त जिन्दगी मे चाँद के सुकून का महत्त्व ही कुछ और है। काश, सारे
जीवित लोग प्रेममय जीवन जीते तो इस संसार का महत्त्व ही कुछ और होता । सच
! लोग इतने हिंस्रक क्यों होते हैं ? क्यों एक दूसरे का कत्ल करते हैं ?
निर्ममता की पराकाष्ठा में क्यों सजातीय की हत्या करते हैं ? क्यों इतना
पीडादायक जीवन जीते हैं लोग ? मैं तो यही चाहता हूँ, अनाहक में आदमी को
मरना न पड़े और हर जीवित आदमीका जीने का हक सुनीश्चित हो ।" तुम्हें
देखकर व तुम्हारी बातें सुनकर मैं हँस दी थी । पीडादायक हँसी हँसना कितना
कष्टकर होता है, यह महसूस किया है मैंने । तुम्हारे अनेक सवालों के जवाब
मेरे पास नहीं हैं । फिर भी मैं याद कर रही हूँ ! वाह ! क्या गजब का
व़क्त था वह, लगता था व़क्त को स्तब्ध पकड़े रहूँ । सच्ची, मैंने उस दिन
सोचा था - यह रात कभी न बीते और सुबह कभी न आए । "चाँद जैसी ही सूखी व
उन्मुक्त जीवन जी पाते, कितना अच्छा होता न ?" मैं तुम्हारे इस सवाल पर
सिर्फ सर हिला पाई थी और शब्द जैसे खो से गए थे । मन भावुक बन गया था ।
"सुना तुमने ! चाँद हर आदमीको शीतलता प्रदान करता है क्योंकि चन्द्रमा का
अर्थ है शान्ति, और शान्ति से बड़ी चीज इस धरती पर दूसरी नहीं हो सकती ।
बातें तो खत्म नहीं हो रही थी पर चूंकि रात गहरा गई थी इसलिए हम
अपने-अपने कमरे की तरफ सोने के लिए चल दिए थे । मुझे रात भर नींद नहीं आई
थी और कानों में तुम्हारे ही शब्द गुँज रहे थे । खिड़की खुली हुई थी और
शीतल पवन के झोंके कमरे को ही शीतल कर रहे थे । मैं रात भर बिन सोए सिर्फ
चाँद को देखती रही थी ।

     "मैं जा रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ,  हमारी मुलाकात फिर होगी, वैसे
तो मैं इस मुलाकात को जीवन भर सहेजकर रखूँगा । हर सुबह तुम्हें सुख और
अतृप्त आनन्द दे, यही कामना करता हूँ ।" विदाई के हाथ हिलाते हुए तुमने
कहा था । तुमसे विछड़कर बस में राजधानी लौटते वक्त मन संवेदनशील हो चला
था ।

     राजधानी लौटने के बाद कई महिनों तक हमारी मुलाकात नहीं हो सकी ।
हम दोनों व्यस्त बन गए । जीने के लिए जी तोड़ परिश्रम करने की बाध्यता थी
तुम्हें भी, और मुझे भी । पढाई के लिए विदेश चलने से पहले मैं तुमसे
मिलना चाहती थी । मैं समझती थी ऐसी मुलाकातें हमारी मित्रताकी गाँठको
मजबूत करेंगी व गौरव बढाएंगी । बहुत लम्बे समय के लिए अपनी मातृभूमि और
स्वजनों को छोडकर जाने पर मन में टीस उठ रही थी और मन खाली हो रहा था ।
"आदमी अकेला जन्म लेता है और अकेला मरता है । जीवन व मृत्यु के बीच के
बचे हुए दिन दोस्ती के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं ।" मेरी माँ हमेशा हमें
समझाया करती थीं ।

     तुमसे मिलने मैं सबेरे ही साधारण कपड़ों पर तुम्हारे किराए के
कमरे की तरफ दौड़ चली थी । घर से तुम्हारे घर की दूरी करीब घण्टे भर की
थी और एक चौरस्ता भी पार करना पड़ता था पर दो घण्टे दौड़ लगाकर ढूँढने पर
भी न तुम्हारा कमरा मिला, न तुम मिले थे । मैं उदास उदास लौट चली थी ।
सड़क के चारों ओर तुम्हारा कमरा ढूँढते वक्त महल्ले की सभी औरतों ने
खिड़कियाँ खोलकर मुझे घूरा था । बाद में पता चला सब औरतें मेरे खिलाफ
मोर्चा बाँधे खड़ी थीं । मैं तुमसे मिलना चाहती थी और छोटी सी ही सही
सुन्दर कविता तुम्हें उपहार, में देना चाहती थी ।

      "मुझे मालूम पड़ा तुम कल पढ़ाई के लिए बहुत दूर जा रही हो ! हो
सकता है हमारी मुलाकात न हो । छ-सात बरस तो लम्बा अरसा है, हो सकता है एक
दूसरे को भूल जाएँ ।" तुमने फोन किया था । लगता था तुम जल्दबाजी में थे ।
तुमने ज्यादा बोले बिना ही रिसीवर रख दिया था । "तुम जहाँ भी रहो खुश रहो
। तुम्हारी हर सफलता की कामना मैं करता हूँ। अगर इश्वर ने चाहा तो हम फिर
मिलेंगे ।" फोन पर तुम्हारे कहे हुए अन्तिम शब्द थे ये । आज वर्षो बाद
तुम भी कहीं बाहर जा रहे हो, अचम्भा तो नहीं हुआ पर बीते हुए दिन इस
खत्म न होती सड़क की तरह याद आते रहे । आँखों से बहते आँसू पोंछने का
असफल प्रयास कर रही हूँ ।
Translated by Kumud Adhikari.
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